अभी कुछ दिनों ही पहले मैंने मैहर की माँ शारदा का दर्शन किया, काफी रिसर्च वर्क के बाद इस पवन शक्ति पीठ की कुछ कहानी पता चली है, तो सोंचा आप सब के साथ इस बतलाया जाये |
आल्हा ने इस मंदिर में 12 बरसों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न कर दिया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया। आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे और तभी से मंदिर भी माता शारदा माई नाम से प्रसिद्ध हो गया । उत्तर में जैसे लोग मां दुर्गा के दर्शन के लिए पहाड़ों को पार करते हुए वैष्णव देवी तक पहुंचते है, उसी तरह मध्य प्रदेश के सतना जिले में भी मां दुर्गा के शारदीय रूप मां शारदा का आशीर्वाद हासिल करने के लिए 1063 सीढ़ियां लांघकर जाते है। सतना के इस मंदिर को मैहर देवी का मंदिर कहा जाता है।
मैहर का मतलब है, मां का हार। यहां सती का हार गिरा था। पुराणों में इस हार पर कथा को लेकर विस्तार से चर्चा की गई है। पौराणिक कथा के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति जो अन्य प्रजापतियों के समान ब्रह्मा जी के अपने मानस पुत्र थे । दक्ष प्रजापति की सोलह कन्याये थी जिनमें से स्वाहा नामक एक कन्या का अग्नि का साथ, सुधा नामक एक कन्या का पितृगण के साथ, सती नामक एक कन्या का भगवान शंकर के साथ, और शेष तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह हुआ। धर्म की पत्नियों के नाम थे - श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, द्वी और मूर्ति। पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ था।
माना जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती शिव से विवाह करना चाहती थी, लेकिन राजा दक्ष शिव को भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे। फिर भी सती ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में बृहस्पति सर्व नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्राह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जानबूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया गया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत आहत हुईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से घायल होकर सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला, तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कर कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे। ब्राह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सती के अंग को 52 हिस्सों में विभाजित कर दिया।
जहां-जहां सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहां आज दिख रहे बावन शक्ति-पीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया। पुराणों में इन 52 शक्ति-पीठों की चर्चा है। हालांकि सतना के मैहर मंदिर का इसमें जिक्र नहीं है। फिर भी लोगों की आस्था इतनी अडिग है कि यहां वषर्भर माता के दर्शन के लिए भक्तों का रेला लगा रहता है। मैहर नगरी से 5 किलोमीटर दूर त्रिकुट पर्वत पर माता शारदा देवी का वास है।
मंदिर तक पहुंचने के लिए भक्तों को 1063 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। पर्वत की चोटी के मध्य में शारदा माता का मंदिर स्थित है। हालांकि पिछले साल से यहां रोप-वे की शुरुआत हो गई है, जिससे वृद्धों और शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों को माता के दर्शन करने में मुश्किल नहीं आती। संपूर्ण भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है। इसी पर्वत की चोटी पर माता के साथ ही श्रीकाल भैरवी, भगवान हनुमान जी, देवी काली, दुर्गा, श्री गौरी शंकर, शेषनाग, फूलमति माता, ब्राह्म देव और जलापा देवी की भी पूजा की जाती है।
क्षेत्रीय परंपरा के मुताबिक, आल्हा और ऊदल ने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था, वे भी शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करते थे। इन दोनों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में 12 बरसों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था। आल्हा माता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था और तभी से यह मंदिर भी माता शारदा माई के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते है।
मंदिर के पीछे पहाड़ी के नीचे एक तालाब है जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है। यही नहीं, तालाब से 2 किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और ऊदल कुश्ती लड़ा करते थे। यह भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदिगुरु शंकराचार्य ने 9 वीं 10 वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। शारदा देवी का मंदिर सिर्फ आस्था और धर्म के नजरिये से खास नहीं है। इस मंदिर का अपना ऐतिहासिक महत्व है।
माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 को की गई है। मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है। इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएंगे। दुनिया के जाने-माने इतिहासकार ए किनंग्घम ने इस मंदिर पर विस्तार से शोध किया है। इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्राजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया।
अंत में आप सभी को शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभ कामनाएं |
माँ आप सभी की हर मनोकामनाएं पूरी करें |
जय माता दी |

