Friday, September 30, 2011

मैहर - माँ शारदा का धाम

                           अभी कुछ दिनों ही पहले मैंने मैहर की माँ शारदा का दर्शन किया, काफी रिसर्च वर्क के बाद इस पवन शक्ति पीठ की कुछ कहानी पता चली है, तो सोंचा आप सब के साथ इस बतलाया जाये |

                         आल्हा ने इस मंदिर में 12 बरसों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न कर दिया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया। आल्हा माता को शारदा माई कहकर पुकारा करते थे और तभी से मंदिर भी माता शारदा माई नाम से प्रसिद्ध हो गया । उत्तर में जैसे लोग मां दुर्गा के दर्शन के लिए पहाड़ों को पार करते हुए वैष्णव देवी तक पहुंचते है, उसी तरह मध्य प्रदेश के सतना जिले में भी मां दुर्गा के शारदीय रूप मां शारदा का आशीर्वाद हासिल करने के लिए 1063 सीढ़ियां लांघकर जाते है। सतना के इस मंदिर को मैहर देवी का मंदिर कहा जाता है।

                           मैहर का मतलब है, मां का हार। यहां सती का हार गिरा था। पुराणों में इस हार पर कथा को लेकर विस्तार से चर्चा की गई है। पौराणिक कथा के अनुसार राजा दक्ष प्रजापति जो अन्य प्रजापतियों के समान ब्रह्मा जी के अपने मानस पुत्र थे । दक्ष प्रजापति की सोलह कन्याये थी जिनमें से स्वाहा नामक एक कन्या का अग्नि का साथ, सुधा नामक एक कन्या का पितृगण के साथ, सती नामक एक कन्या का भगवान शंकर के साथ, और शेष तेरह कन्याओं का धर्म के साथ विवाह हुआ। धर्म की पत्नियों के नाम थे - श्रद्धा, मैत्री, दया, शान्ति, तुष्टि, पुष्टि, क्रिया, उन्नति, बुद्धि, मेधा, तितिक्षा, द्वी और मूर्ति। पुराणों के अनुसार सती के शव के विभिन्न अंगों से बावन शक्तिपीठो का निर्माण हुआ था।

                             माना जाता है कि दक्ष प्रजापति की पुत्री सती शिव से विवाह करना चाहती थी, लेकिन राजा दक्ष शिव को भूतों और अघोरियों का साथी मानते थे। फिर भी सती ने अपने पिता की मर्जी के खिलाफ जाकर भगवान शिव से विवाह कर लिया। एक बार राजा दक्ष ने कनखल (हरिद्वार) में बृहस्पति सर्व नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ में ब्राह्मा, विष्णु, इंद्र और अन्य देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया, लेकिन जानबूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया गया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुत्री सती इससे बहुत आहत हुईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने पिता दक्ष से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा। इस पर दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर को अपशब्द कहे। इस अपमान से घायल होकर सती ने यज्ञ-अग्नि कुंड में कूदकर अपनी प्राणाहुति दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुर्घटना का पता चला, तो क्रोध से उनका तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर ने यज्ञकुंड से सती के पार्थिव शरीर को निकाल कर कंधे पर उठा लिया और गुस्से में तांडव करने लगे। ब्राह्मांड की भलाई के लिए भगवान विष्णु ने ही सती के अंग को 52 हिस्सों में विभाजित कर दिया।

                              जहां-जहां सती के शव के विभिन्न अंग और आभूषण गिरे, वहां आज दिख रहे बावन शक्ति-पीठों का निर्माण हुआ। अगले जन्म में सती ने हिमवान राजा के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया और घोर तपस्या कर शिवजी को फिर से पति रूप में प्राप्त किया। पुराणों में इन 52 शक्ति-पीठों की चर्चा है। हालांकि सतना के मैहर मंदिर का इसमें जिक्र नहीं है। फिर भी लोगों की आस्था इतनी अडिग है कि यहां वषर्भर माता के दर्शन के लिए भक्तों का रेला लगा रहता है। मैहर नगरी से 5 किलोमीटर दूर त्रिकुट पर्वत पर माता शारदा देवी का वास है।
                             मंदिर तक पहुंचने के लिए भक्तों को 1063 सीढ़ियां चढ़नी पड़ती है। पर्वत की चोटी के मध्य में शारदा माता का मंदिर स्थित है। हालांकि पिछले साल से यहां रोप-वे की शुरुआत हो गई है, जिससे वृद्धों और शारीरिक तौर पर विकलांग लोगों को माता के दर्शन करने में मुश्किल नहीं आती। संपूर्ण भारत में सतना का मैहर मंदिर माता शारदा का अकेला मंदिर है। इसी पर्वत की चोटी पर माता के साथ ही श्रीकाल भैरवी, भगवान हनुमान जी, देवी काली, दुर्गा, श्री गौरी शंकर, शेषनाग, फूलमति माता, ब्राह्म देव और जलापा देवी की भी पूजा की जाती है।
                              क्षेत्रीय परंपरा के मुताबिक, आल्हा और ऊदल ने पृथ्वीराज चौहान के साथ युद्ध किया था, वे भी शारदा माता के बड़े भक्त हुआ करते थे। इन दोनों ने ही सबसे पहले जंगलों के बीच शारदा देवी के इस मंदिर की खोज की थी। इसके बाद आल्हा ने इस मंदिर में 12 बरसों तक तपस्या कर देवी को प्रसन्न किया था। माता ने उन्हें अमरत्व का आशीर्वाद दिया था। आल्हा माता को शारदा माई कह कर पुकारा करता था और तभी से यह मंदिर भी माता शारदा माई के नाम से प्रसिद्ध हो गया। आज भी यही मान्यता है कि माता शारदा के दर्शन हर दिन सबसे पहले आल्हा और ऊदल ही करते है।
                                     मंदिर के पीछे पहाड़ी के नीचे एक तालाब है जिसे आल्हा तालाब कहा जाता है। यही नहीं, तालाब से 2 किलोमीटर और आगे जाने पर एक अखाड़ा मिलता है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा और ऊदल कुश्ती लड़ा करते थे। यह भी मान्यता है कि यहां पर सर्वप्रथम आदिगुरु शंकराचार्य ने 9 वीं 10 वीं शताब्दी में पूजा-अर्चना की थी। शारदा देवी का मंदिर सिर्फ आस्था और धर्म के नजरिये से खास नहीं है। इस मंदिर का अपना ऐतिहासिक महत्व है।
                                   माता शारदा की मूर्ति की स्थापना विक्रम संवत 559 को की गई है। मूर्ति पर देवनागरी लिपि में शिलालेख भी अंकित है। इसमें बताया गया है कि सरस्वती के पुत्र दामोदर ही कलियुग के व्यास मुनि कहे जाएंगे। दुनिया के जाने-माने इतिहासकार ए किनंग्घम ने इस मंदिर पर विस्तार से शोध किया है। इस मंदिर में प्राचीन काल से ही बलि देने की प्रथा चली आ रही थी, लेकिन 1922 में सतना के राजा ब्राजनाथ जूदेव ने पशु बलि को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया।

एक छाया चित्र भी आप लोगों को सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ |
अंत में आप सभी को शारदीय नवरात्र की हार्दिक शुभ कामनाएं |
माँ आप सभी की हर मनोकामनाएं पूरी करें |
जय माता  दी |

Tuesday, August 30, 2011

जीवन चक्र

बाल्यावस्था -
         ढोल अगन में बज रही होगी,
         आशाएं संभाले न संभल रही होगी,
         तुम एक बार रो के तो दिखाओ,
         छठी घर में मन रही होगी |

किशोरावस्था -
           किताबें कह रही होंगी,
           लेखनी लिख रही होगी,
           तुम परीक्षा में न घबराओ,
           सफलता इंतजार कर रही होगी |

युवावस्था -
          दीप की लव मचल रही होगी,
          शमा दिल में जल रही होगी,
          जिंदगी होगी उसकी बाँहों में,
          नींद बहार टहल रही होगी |

प्रौढ़ावस्था -
           कर्तव्यों की कतारें होंगी,
           जीत की धुन चल रही होगी,
           समय से तुम न शर्माओ,
           विफलता तुम पर मचल रही होगी |

वृधावस्था -
             भीड़ टाले न टल रही होगी,
              नींद तोड़े न टूटेगी ,
             तुम चिता देख न घबराओ,
             आत्मा घर बदल रही होगी |

- अखिल कुमार द्विवेदी

Sunday, August 21, 2011

भारत के लिए दूसरी आज़ादी क्या है ???

                      आज पूरे देश में हर जगह " भ्रष्टाचार मिटाना है जन लोकपाल बिल लाना है" का नारा गूँज रहा है, पर जरा सोंचिये की जो मीडिया इसे आज़ादी की दूसरी लड़ाई घोषित कर रही है वह कितना सार्थक है ?, और आज स्वतंत्र भारतीय गणतंत्र को क्या चाहिए ?
                     हर तरफ हर जगह यही मुद्दा
छाया है, भारतीय ही नहीं बल्कि अन्तराष्ट्रीय मीडिया भी अन्ना की अनशन को लाइव दिखा रहा है| यह बात पूरी तरह सच है की भ्रष्टाचार एक बहुत बड़ी बीमारी है, और देश को अंदरूनी रूप में शायद सर्वोपरि भी क्यूँ न हो, पर जरा ये तो सोंचिये की देश को इस बीमारी को देने वालों से भी बड़े वो हार्ट अटैक के झटके हैं जो भारत को समय पर आतंकवादी हमला करके देश को अकाल मृत्यु का आभास करा रहें हैं, उनका क्या ? |
                       मेरा किसी प्रेम रस के बड़े कवि से कोई विशेष बैर नहीं है पर वीर रस के कवियों का अपमान करने वाले प्रेम रस कवियों को सम्मान नहीं किया जा सकता, कबतक हम हँस्य नाटक और चुटकुलों से मन बहला के शहीदों की कहानियों से मुह छिपाते फिरेंगे |
                      सब ये तो जानते ही हैं की देश के ज्यादातर राजनेताओं ने कितने ही तरीकों और कितनी बार देश को लूटा है और फिर सीना तान के सरकारी मंत्री बने घूम रहें हैं या जेड प्लस सुरक्षा में अति शांति पूर्ण नींद जेलों में ले रहें हैं, और जब तक कुछ ब्याज मिल जाये फिर बाहर आके मजा लूटते हैं, पर वो कितने कायर हैं ये तो उन दरिंदो के प्रति आदर इनके आदर सम्मान देने से ही पता चलता है जिन्होंने कितने ही निर्दोष और मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया |
                   " अन्ना नहीं है आंधी है, देश का अगला गाँधी है " क्या अच्छी बात है की राष्ट्रपिता का पुनर्जन्म हुआ है, वह हमे अंग्रेजों से तो नहीं,किन्तु क्रोस ब्रीड अंग्रेजों से आज़ादी दिलाएंगे, पर क्या हम नेताजी सुभास चन्द्र बोस के योगदान को भुला देंगे, उन्हें ' राष्ट्र पित', ' चाचा ' की उपाधि नहीं मिली तो क्या वो ' दादा ' की तो हक़दार थे ही, ये तो उनके परिवेश और उनकी संस्कृति भी कहेगी, और जो भी हो, क्या उन नेताजी को बड़ी पदवी नही मिली तो फिर वह पुनर्जन्म नहीं लेंगे, अंधविश्वास न सही , पुनर्जन्म न सही पर कोई तो होगा जो उनके पद चिन्हों पर चलेगा |
                   आज देश के उन आतंकवादियों को जिन्होंने सैकड़ों लोगों को इस दुनिया में जीने नहीं दिया, जिन्हों ने भारत के सीने को रह रह कर
छलनी किया है, और आज उन्हें विदेशी दामाद की तरह सेवा की जा रही है, और तो और उन्हें जेड प्लस प्लस प्लस की सुरक्षा मिल रही है, क्यों की उन्होंने उन लोगों को मार डाला, जो कभी अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं की| उनमे वो सभी लोग भी शामिल हैं, जो कारगिल जैसे युद्ध में शहीद हुए जिन्होंने भारत का शीश ऊँचा रखा, जो संसद में हुए हमले मैं शहीद होके भारत के दिल को सुरक्षित रखा, जो मुंबई में शहीद होके भारत के जिगर को बचाया, पूरे भारत में हुए आतंकवादी हमलों में शहीद हुए और कभी अपनी सुरक्षा नहीं देखी |
                  उन हजारों वीरों को कौन इन्साफ दिलाएगा, क्या हमोई अपने घर का इन हमलों में मारा जाये तब तक चुप रहेंगे, क्या उन आतंकवादियों को मुहतोड़ जवाब नहीं देंगे और आगे भी ऐसे हमले करने के लिया छोड़ते रहेंगे, आस्तीन का सांप तो सांप ही है किन्तु कालिया नाग से कौन मुक्ति दिलाएगा,
आज कृष्ण जन्माष्टमी पर हमे उस कालिय नाग से मुक्ति चाहिए जिसको कभी उन्होंने मारा था , कलियुग में कृष्ण अवतार तो होगा नहीं, किन्तु कोई महापुरुष तो इससे निजात दिलाएगा ही |
                 अन्ना जी गाँधी रूप में हमें
भ्रष्टाचार रूपी कलंक से निजत दिला दें तो हम सबका परम सौभाग्य होगा, पर आतंकवाद रूपी दानव को भी तो मिटाना है| लोकपाल हमे राशन का लाइसेंस यानि राशन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस या विदेश जाने का लाइसेंस यानि पासपोर्ट बिना घूंस के दिला दें तो क्या बात होगी, सभी भ्रष्टाचारी द्वारा लूटी रकम मिसाल के तौर पे राजा जी जैसे लोगों से मिली मुद्रा ले हम सब भारत वासियों को दे दें तो सब करोड़पति हो जायेंगे, और ऐसे चोरों को जेलों में देख के तो हमे भी सुकून मिलेगा, पर क्या उन करोड़ों रुपयों से हम जीने का लाइसेंस बनवा पाएंगे ?, क्या हम चैन की नींद सोने पाएंगे ?, क्या फ़ायदा होगा उन पैसों का मरना तो मरना होता है चाहे करोंडपति होके मारें या गरीबी रेखा से नीचे जी के मरें, सब जानते हैं हम इस दुनिया से एक तिनका भी नहीं ले जा सकते, मै ये बिलकुल नहीं कह रहा की गरीबों को अच्छा जीवन न मिले, किन्तु मै यह कह रहा हूँ की सबको सुकून का जीवन तो मिले, सब यही चाहतें हैं की एक रोटी कम खायेंगे पर सुकून से जियेंगे तो सही |
                  मेरे प्यारे भारतवासियों, तुम संघर्ष करो, गाँधी जी का पूरा साथ निभाओ किन्तु अगले नेताजी यानि अगले सुभाष चन्द्र बोस को ढूंढ़ कर उनके कन्धों से कन्धा मिला कर आजाद हिंद फौज बनाने को तैयार रहो |
                  अहिंसा परम धर्म है किन्तु अहिंसा का मतलब ये नहीं की
अहिंसा के मार्ग पर चलते हुए हमें  कायरों में गिना जाये, हमे  भ्रष्टाचार से हुए लाभ से कफ़न खरीद के सर पे बांध लेंना और भारत माँ की रक्षा के लिए सीना तान के जान कुर्बान करने के लिए तैयार रहना है, यह हमेशा याद रखना आज़ादी दिलाने के शब्द थे," तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आज़ादी दूंगा ", यही हमारे पूर्वजों ने किया है, और हमें भी यही करना पड़ेगा तभी आतंकवाद रूपी दानव सदा के लिए मेरी भारत माँ की तरफ आँख उठा के भी नहीं देखेगा, और हाँ अंत में मीडिया को एक सन्देश " आज़ादी की दूसरी लड़ाई अभी बाकि है मेरे दोस्त " ये लड़ाई अगले नेताजी के साथ शुरू होगी और लोकपाल बिल पर नहीं आतंकवाद के समाप्ति के साथ ख़त्म होगी|
जय हिंद ! जय भारत ! वन्दे मातरम् !
इन्कलाब जिंदाबाद !
-अखिल

Friday, August 19, 2011

विश्वविद्यालय से घर - यात्रा वृतांत्र

गुरुवार का दिन था, सामने एक नदी बह रही थी, किनारे की नर्म घास और उस विश्व सुंदरी की कोमल बाहें, मेरी जलती दोपहर को कब शाम में बदल दिए पता ही नहीं चला | जो कुछ रह गया था, माहौल बनाने में वो उसकी जुल्फें जो उसने फैशन जगत में अपना लोहा न मनवा कर अपने प्रीतम के लिए बिना कटाए रख्खी थी, उसी से वह मुझे  रात के आगोश में लेने को आतुर हो रही थी, इतने में ही जोर की आवाज आई, " अरे अखिल देखो तो नौ बज गए, आज कालेज नहीं जाना क्या " ? मेरी सपनो की दुनिया की वास्तविकता मेरे सामने थी, वो फूलों सी परी पता नहीं किस लोक में चली गयी, यह तो वह पल भी न जान पाया, अब उसी नारी रूपी शक्ति का दूसरा रूप मेरी माता जी सामने खड़ी थी.......मै जब तक कुछ समझ पता एक और आवाज आई, यह काफी गंभीर और क्रुद्ध सी थी, "मत जगाओ सोने का मजा ही कुछ और है....." यह पिता जी थे, बाकि उनकी बात पूरी न हुई इतने में मैंने अपने प्रश्न से मुद्दा बदलना चाह, मै नहीं चाहता था की विश्वविद्यालय के बहुमूल्य लेक्चर की शुरुआत घर से ही हो, मैंने कहा, " लगता है आज मेरी अलार्म घडी बंद हो गयी, इतने पर पुनः वही गंभीर आवाज," कभी तुमने अलार्म लगाए भी है की आज घडी को दोष दे रहे हो " |
                मैंने जोश से फिर कहा "क्या अज थर्सडे है" , माता जी कही," हाँ, आज तो तुम्हे साढ़े नौ बजे ही जाना रहता है ?" , मैंने कहा, "मै नहा के निकलता हूँ ", थोड़ी देर में जब घर से निकलने लगा तब देखा मेरी मर्सडीज़ पर पिता जी पहल से सवार मेरा इंतजार कर रहे थे,तब पिता जी ने नम्रतावादी रुख अपनाते हुए कहा, "आज मै तुम्हे छोड़ते हुए आफिस जाऊंगा,तुम लौटते हुए किसी प्रकार आ जाना" , सुबह की घटनाओं की वजह से मैंने बिना शर्त समर्पण कर दिया |
               विश्वविद्यालय में कुछ पढाई लिखाई के बाद कहा थोडा चलो उस सुन्दरी को ढूंढ लें जो शायद मेरी जन्म जन्मान्तर के सूखे मरुस्थल को किसी हसीं वर्षावन में बदल दे, वैसे तो यह रोज़ का अति आवश्यक कार्य था किन्तु आज कुछ ज्यादा ही जरुरी था, क्यों की आज तो एक तीर से दो शिकार करने थे, अरे घर वापसी के लिए कोई हमराह भी तो चहिये, मिशन सफल ना रहा, ज्यादा कोशिश भी नहीं की, न जाने कब कोई मुझ पर हमला बोल दे, जब दिन के तीन पहर बीत गए याद आया आज तो अपनी मर्सडीज़ नहीं है, जब माथे पर थोडा बल दिया तो सोंचा की मित्र को कहूँ जो आज मुझे मेरी मंजिल तक पहुंचाए, किन्तु याद आया सब तो यहाँ अपने परिवार सहित आतें हैं, मुझको कौन अपने बन रहे या बने हुए परिवार में शामिल करेगा, मैंने आज अपने कदम आजमाने का मन बना लिया |
                 अभी ट्रिपल आई टी से निकला ही था की हिन्दू हस्टल के गेट पे मेरे प्राचीन मित्र मिल गए, दोनों लोग मन ही मन काफी खुश हुए "चलो कोई तो मिला पकाने को", पर मुझे क्या पता था वो तो मेरे मर्सडीज़ का लुत्फ़ लेने के लिए मेरे पास भू एवं ग्रहीय विज्ञान संकाय ही आ रहे थे, उन्होंने कहा," अरे बाबा तुम बिना वाहन कहाँ निकल रहे हो, मनमोहन पर कुछ नशा पत्ती करने जा रहे हो क्या ?", मैंने कहा " ऐसे निकला सोंचा थोडा बाहर की हवा ले लूँ फिर कुछ ज्ञान अर्जन किया जाय, तुम बताओ, यहाँ कैसे ?", वह अपने असली अर्थ पर आया ,कहा," पता है हनुमान जी डूब गए ! "  मैंने कहा " क्यूँ, उन्हें तैरना नहीं आता क्या ? ", वो थोडा झुंझलाते हुए बोला," क्या में जब देखो तब वही ! अरे बाबा बांध वाले , चलो आज चलते हैं थोडा मूड फ्रेश हूँ जायेगा, गंगा खतरे के निशाँ पे हैं, कुछ देख वेख कर आएंगे " | मैंने अपना हालात बताते हुए उससे किसी तरह पीछा छुड़ाया, क्यूँ की अभी कुछ दिन पहले ही मैं माहौल ले आया था |
              थोडा आगे बढा तो देखा, रोज़ गर्मजोशी और विद्रोह भरे आन्दोलन वाले आज बड़ी शान्ति के साथ अपने अन्य स्वान मित्रों के साथ किसी दौरे पर जा रहे है, वैसे तो मुझे कई बार इन भगवा साधू कुत्तों ने अपनी तरह का प्रसाद दे दिया था किन्तु, आज वो सभी मार्ग के दूसरे पटल पर जा रहे थे | भय कम हुआ तो मुकेश का मधुर गीत याद आया, " चल अकेला चल अकेला ..................", अभी गीत को अपने मोबाइल में ढूंढ रहा था इतने में एक साईकल सवार मुझे पीछे से टकराया, मुडा तो पता चला गीत के शुरुआती बोल उनके साईकल में ब्रेक न होना की चेतावनी और सुमधुर संगीत उसी साईकल जिसने मुझे घायल किया उसकी घंटी थी, मैंने नव युवतियों से सीखे शब्द हा प्रयोग किया, मैंने कहा "आउच, ओह सॉरी ", क्यूँ की मै ही आधी रोड़ पे था, किन्तु उसने मेरी भावनाओं की क़द्र न करते हुए कहा, " कौन आउट हुआ ", मैंने उन्हें समझाया की मै मैच नहीं देख रहा |
               अब जांघों में पीड़ा उत्पन्न हो गयी, पहले तो डेढ़ किलोमीटर पैदल, ऊपर से साईकल की चोट, मैंने विचार किया की चलो कचेहरी से किसी टैम्पो की सवारी की जाय, स्टैंड पर पहुँचते ही मुझे अपने संसद में होने का आलम महसूस हुआ, इलाहाबाद के टैम्पो वाले सवारी का बड़ा सम्मान करते हैं, खैर एक तंदुरुस्त क्लीनर ने मुझे अपनी टैम्पो में धकेल दिया, मैंने सँभालते हुए पहले से बैठे एक बुजुर्ग से कहा, " मालूम पड़ता है जैसे माल लाद रहें हो ",उनका उत्तर न मिला तो मुझे पता चल गया ये गांधीवादी विचारधारा के हैं | देखते ही देखते एक बन्धु बोले भाई थोडा जगह तो दो, इसपर ड्राइवर बोला तीन पे चार हो जाओ, मै तो अनुभवी था, बगल में बैठे बंधुवर डरते हुए कहे, "चाहते क्या हो तुम ", मैंने कम शब्दों के इस्तेमाल से उन्हें अस्वस्त किया उनपर कोई खतरा नहीं है |
                वन्दे मातरम की गूँज हो उठी, टैम्पो रुक गई, पता चला आगे कोई जुलूस जा रहा है, दादा जी बोल उठे, "अन्ना की अंधी है", इसपर मैंने भी सोचा की प्रतिक्रिया दी जाय, मैंने कहा," अब लगता है कुछ बदलेगा, भ्रष्टाचार कम होगा ", दादा जी कहे, " कुछ नहीं बदलेगा, लोकपाल भी कहेगा साहब आप पर गाज गिरने वाली है,तुम्हारे खिलाफ मामला आया है, चलो कुछ खर्चा कर दो मामला रफा दफा हो जायेगा ", मैंने उन्हें विश्वास दिलाया," दादा ऐसा बिलकुल नहीं है, अबकी सब ठीक हो जायेगा ", वे कहने लगे," हमने देखा है, पहले आज़ादी का सपना दिखाया, फिर आज़ादी के बाद अब तक क्या हुआ है, पहले के दिन ज्यादा अच्छे थे, आज सब चोर हैं ", इतने पर वकील साहब से रहा न गया ," बाबु जी आप जो आज कुछ इतनी आज़ादी से किसी को भी कुछ भी बोल रहें हैं यह आपका जन्मसिद्ध अधिकार नहीं है, यह भी एक आन्दोलन की देन है "| दादा जी ने कोई उत्तर देना ठीक न समझा उनके पास ज्यादा तर्क न थे, वैसे भी किसी युवा वकील से कौन तर्क से जीत सकता है, अब सब चुप थे, थोड़ी देर तक टैम्पो तो रुकी रही फिर दूसरे रस्ते से उसने किसी तरह मुझे घर के निकट टैम्पो स्टैंड तक पहुँचाया, मैं किराया दे आगे बढ़ गया किन्तु एक सवाल अभी भी मेरी मस्तिष्क में घूम रहा था, क्या यह सिस्टम कभी बदलेगा या फिर दादा जी की बात ही सही हो जाएगी | लेकिन जो भी हो मुझे अपने पैरों पर अभी भी विश्वाश था क्योँ की इन्हों ने कभी मुझसे गूंस नहीं माँगा, जब चाहा निकल पड़े, और करना भी पड़ता है क्यों की अभी भी मुझे थोड़ी दूर इन पर ही जाना था |
                                                                               - अखिल कुमार द्विवेदी

" नारी का अस्तित्व "

क्या कभी शब्दों से ऊपर उठकर आपने अपने विचारों तो ज़रा सी  तकलीफ़ दी है कभी ???
आइये मै आपको एक अपना पुराना वाकया बताता हूँ....

               दरसल बात उन विकृत मानसिकता वाले समाज की है जिनको सृष्टिरचयेताओं में आर्थिक सामाजिक और तो और सबसे बड़ा मानसिक बोझ नज़र आता है.....
घटना सुन कर मै नहीं चाहता की आप मुझे मतलब से ज्यादा विचारवादी और हिम्मत से डरपोक समझने लगें, सफाई सिर्फ इतनी देनी है की एक तो मेरी चौदह वर्ष की चढ़ती जवानी और दूसरा सामजिक प्रथा में विश्व प्रसिद्ध कहावत " जब दो बड़े बात कर रहें हो तो बीच में टांग नहीं लगाना चहिये " के मुझपर थोपे जाने का डर |
वैसे यहाँ पर इक और बात बताना चाहूँगा की शायद अब आपको यहाँ मुस्कुराने का मौका ना ही मिले, शुक्ल जी के घर पे आज शाम सत्यनारायण की कथा थी, वैसे माध्यम वर्गीय परिवार बार और पब में तो जा नहीं सकते, कहते हैं यह अमीरों के शौख़ हैं, सो पूरा वर्ग इन्ही धार्मिक क्रिया कलापों में सम्मिलित हो कर आपसी मिलन का रसपान करता है |

                         शुक्ल जी बड़े धार्मिक थे इनके परिवार में तीन कन्या रत्नों की प्राप्ति के बाद एक कुलदीपक ( उन्ही के शब्दों में ) यानि पुत्र था, वैसे सबसे छोटा होने के कारण बहुत लाडला था | मोहल्ले के लोग इकठ्ठे हो गए, पंडित जी आ ही गए थे बस कुछ मित्रों की कमी थी और एक आधे रिश्तेदारों की, एक आधे कहने का अर्थ यह है की इस दिखावे के समय में आज सभी इसी चिंता में रहतें हैं की यदि रिश्तेदार नहीं आए तो सब कहेंगे की इनकी तो किसी से पटती नहीं है, और अगर आ गए तो पता नहीं कब वापस होंगे, ऐसे मुस्किल वक्त में कुछ ऐसे रिश्तेदार काम आतें हैं जिनके बच्चे कान्वेंट में पढ़ते हैं और वह खुद भी नौकरी पेशा हों ताकि उन्हें जल्द से जल्द झूंठे काम काज का ढोंग कर के घर से जल्द से जल्द रवाना किया जा सके |

                  शुक्ल जी के अनुसार उनकी किस्मत हमेशा अंतिम समय पर साथ देती थी, खैर उनकी साली अपने बेटे के साथ आ पहुंची, और उससे थोडा पहले ही उनके आफिस के मुंशी जी जो इनके परम मित्र थे वो भी अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे, हाँ थोडा दिक्कत ये थी की इनकी सिर्फ एक बेटी थी ये उसे भी साथ ले आये थे, क्यों की परम मित्र के घर कथा थी पर दिक्कत ये थी की बेटी को किस कोने में छुपा कर बैठाया जाये वैसे इनकी बिटिया तो शहर के ही प्रौद्योगिकी संस्थान में सूचना विभाग की छात्रा थी पर सामजिक बंदिशें तो किसी की शिक्षा देख कर सामने ने नहीं आती फिर भी, आप सब अंत तक इन पत्रों के परिवार के विषय को मस्तिष्क में जगह दिए रखियेगा |

                  हम यहाँ किसी के संस्कारों की बुरे नहीं कह रहे पर सोंचने का सबका अपना नज़रिया  होता है, पंडित जी को शायद  गणेश जी से विशेस लगाव था या उनकी बोली से मुझे समझ आने वाला एक ही मंत्र मेरे कानों में रह रह कर गुंजन कर रहा था, शुरुआत भी इसीसे हुई थी, " गजाननम भूत ......." बाकी कहने की जरुरत नहीं है यह तो आप भी खूब सुने होंगे, पंडित जी ने कथा के विभिन्न अध्याओं के अनुसार " वैश्य को कलावती नमक एक कन्या उत्पन्न करा दी, और हिंदी फिल्मों की तरह उसकी शादी भी हो गयी कुछ कठिन समय के बाद भगवान् सत्यनारायण ने हैप्पी एनडिंग भी कर दी", अब हवन के दौरान आज की पीढ़ी को संगीत के सबसे ककडवे और लज्जाजन प्रकार का दर्द हांसिल हुआ किन्तु उसे यहाँ प्रस्तुत करना आपत्तिकानक मालूम होगा |

                    प्रसाद वितरण के बाद अधिकतर बंधू अपने निज निवास को प्रस्थान कर गए, शुक्ल जी, मुंशी जी, उनकी साली, और मोहल्ले के अवकाशप्राप्त यादव जी रुक गए क्यों की इनके जीवन में वायुसेना की नौकरी छूट जाने के बाद इस प्रकार के मनोरंजन की व्यवस्था नहीं थी, कहने को तो इनके इनके चार बेटे थे, दो तो मलटी नैशनल कंपनियों में मैनेजर एक सरकारी विभाग में बड़ा अधिकारी था और सबसे छोटा लन्दन से चिकित्सक बनने के अंतिम पड़ाव में था,पर एक भी इनके साथ ना थे |

                जब सर्व गुण संपन्न मुंशी जी की पुत्री को पूड़ी बनाते शुक्ल जी की श्रीमती ने देखा तो बड़ी तारीफ़ की, किन्तु असली इंसानियत तो अभी बाकी ही थी, शुक्ल जी ने श्रीमती की बात पर टिपण्णी करते हुए कहा, " भाई चाहे पच्चीसवी सदी क्यूँ न
जाय पर लड़कियों को रसोईं तो हमेशा संभालना आना चाहिए, पढना लिखना तो बस ऐसे ही है, असली शिक्षा तो घर परिवार की जिम्मेदारी निभानी आनी चाहिए"| इतने पर मुंशी जी से रहा न गया वे बोले," बात तो आप ठीक ही कहतें हैं किन्तु पढ़ने से थोडा दहेज़ कम हो जाता है" | अब क्या था यादव जी तो ऐसी कोई बात शुरू होने ही फिराक में रहतें हैं, बोल पड़े, " साहब लड़कियां जो भी हो पराया धन होती हैं, पढाओ न पढाओ किन्तु मोती रकम तो ले ही जाती हैं, वैसे भी क्या होता है पढ़ा के नौकरी से तो आखरी में सासुराल ही चलता है", अब मुझको ही देख लीजिये मेरी श्रीमती तो तीसरी फेल थी किन्तु क्या बढ़िया घर चलाया, बच्चे कितने अच्छे जगहों पर हैं, और तो और कमाऊ बहु भी ले ई, अब और जीवन में क्या चहिये", शायद वो जीवन में अपनी जान के दुश्मन अकेलेपन को भूल गए थे, जो भी हो | शुक्ल जी से रहा न गया और वो अफ़सोस भरे शब्दों में बोले, " अब एक बेटी तो हमे भी है, कहीं लड़का सरकारी नौकरी वाला मिल जाये तो इसको सोलह साल में ही निपटा देंगे, अब पूरे मेहनात से बचत कर रहा हूँ, जब इसका ब्याह हो जाये तो गंगा नहाऊंगा, पता नहीं कितना दहेज़ ले जाएगी" | मुंशी जी बोले," हम भी आपके ही हाल में हैं, जो पढाई में खर्च हो गया उसको तो भूल जाइये, लड़के वाले कहते हैं की क्या हमने अपने बेटे को नहीं पढ़ाया और इतने अच्छे कॉन्वेंट में कितनी फीस दी है, अब कुछ तो रकम वसूली हो "| पर मुंशी जी की चिंता का सबसे बड़ा कारण तो उनके पडोसी का उन पर झगड़े में ये कहना था की "आप का वंश कैसे बढेगा", इन सबको क्या यह नहीं पता की वंश बढ़ाने में सिर्फ पुरुषों की ही भूमिका होती है,उसका क्या जो उनके वंश के चिराग को अपना खून देती है, उन्हें महीनों अपनी कोख में रखती हैं |

            सबकी एक राय बनी की यादव जी पर भगवन की बड़ी कृपा थी, क्यूँ की उनके तो कोई लड़की और कह लीजिये की मुसीबत नहीं थी, किन्तु शायद वो सब थोड़ी देर पहले ही हुए सत्यनारायण व्रत में वैश्य को भगवान् से वरदान स्वरुप प्राप्त हुई कन्या को भूल चुके थे | यादव जी राज खोलते हुए कहा," अरे होने को तो मेरे पांच लड़कियां होती ये तो सब मेरी माँ का ही कृपा थी की कुछ को जन्म के पहले और कुछ को जन्म के बाद जग जननी के पास पहुंचा दिया", ऐसा कह कर वो एक बार फिर अपने कुकृत्य पर अपनी छाती गज भर कर लिए | शुक्ल जी कहे, " मैंने भी सोंचा था की हो सकता है मुझे आखरी संतान एक और फिक्स्ड डिपोसिट ही होगा किन्तु, भगवान् तो मेरी ख़ुशी छिनने पे ही लगे थे, दे दिया एक मोटा लोन ", ऐसा कहते हुए एक लम्बी सांस ली......, 

                  अब शायद आगे सुनने की शक्ति मुझमे ना थी, हे भगवान् तुमने क्या माया फैला दी है, दुनिया तुम्हारे भी पूजनीय दुर्गा रूपी नन्ही कन्याओं का इतना निर्मम अंत, वो जिन्होंने ये दुनिया नहीं
देख सकी शायद अच्छा किया, क्यूँ की इस स्वार्थी दुनिया में आने के बाद उनको कदम कदम पर मारा जाता, चाहे वो पालन पोषण में हुई पक्षपात, या अच्छी शिक्षा न देने पर महंगाई और भविष्य का हवाला देकर, इतना ही नहीं कुछ दहेज़ के नाम पर ससुराल में जल उठती तो कुछ रेल की पटरियों पर हमेशा के लिए सो जाती, अगर हाँ इन सबसे जो बच जाती तो कुछ अगली पीढ़ी को इन प्रक्रियाओं से गुजारती ( यादव जी की माँ के रूप में ) और हो सकता है कोई करोड़ों में एक कहती,

" एक कुल में लेती
हूँ जन्म,
एक कुल में ब्याही जाती हूँ,
नारी है नाम मेरा दो कुलों की लाज निभाती हूँ|
अस्तित्व नहीं है कुछ भी मेरा,
एक बेल सा मेरा जीवन,
लिपट
वृक्ष से फलती बढती जाती हूँ,
गर न मिले कोई सहारा पैरों से कुचली जाती हूँ|
गिला नहीं है कुछ भी मुझको,
मै जननी हूँ, मै
सृष्टिरचयेता हूँ ,
मै बनकर अर्धांग्नी पुरुष को संपूर्ण बनती हूँ,
नारी है नाम मेरा हर उम्र में साथ निभाती हूँ |

हर बार यही कह कह कर के,
अपने पर ही गर्वित हो जाती हूँ,
नारी है नाम मेरा धरती को स्वर्ग बनती हूँ
" |

               अब शाम ज्यादा ढल चुकी थी और निशा का आगमन हूँ चुका था, इतने में पप्पू ने मुझे तेज से घूंसा जड़ दिया कहा," आज तुम दुर्गा मंदिर नहीं आये......."
मेरे मुख से तो नहीं किन्तु अंतरात्मा से बोल फूट पड़े " अब दुर्गा जी ने आंख बंद कर ली है चलो काली को ही जगाएं......."

                                                                           - अखिल कुमार द्विवेदी

Thursday, August 18, 2011

अब तो समझो भारत वासी

गिर गयी है कितनी मस्जिद ,
जल गए कितने मकां ,
अब तो समझो भारत वासी ,
असली मज्हब है कहाँ |

मर मिटे कितने शहीद ,
फंसी चढ़े कितने जवां ,
अब तो समझो भारत वासी ,
 अपनी आज़ादी कहाँ |

तुम सुने कितनी कहानी ,
है करोंडो दास्तान ,
अब तो समझो भारत वासी ,
कारवां अपना कहाँ |

तुम सुने कानून कितने ,
न्यायलय कितने यहाँ ,
अब तो समझो भारत वासी ,
अपना न्याय है कहाँ |

ढोंगी भगवा में है कितने ,
कितने गाँधी है यहाँ ,
अब तो समझो भारत वासी
कर्म योगी हैं कहाँ |

रास्ते तो हैं ये कितने ,
मोड़ लाखों है यहाँ ,
अब तो समझो भारत वासी
अपनी मंजिल है कहाँ |

पथ प्रदर्शक है तो कितने ,
मार्ग विद्रोही यहाँ ,
अब तो समझो भारत वासी
सदगुरू आखिर कहाँ |
                          - अखिल कुमार द्विवेदी
 

आशावादी मनुष्य

गर दिन गुजरते हैं तो गुजारते रहिये ,
पेट भरे न भरे प्यास मिटाते रहिये ,
वैसे तो इबादत का असर होता होगा ,
गर न हो तो, पुजारी को घूँस खिलाते रहिये |


खून माँ का जो रगों में उसमे उबाल लाते रहिये ,
मंजिल मिले न मिले राह में कदम बढ़ाते रहिये ,
परिवर्तन तो विद्रोह भड़काने से भी हुआ था ,
पर हम गांधीवादी हैं, अहिंसा से काम चलाते रहिये |

कहते हैं लोग दिल मिले न मिले हाँथ मिलाते रहिये ,
ऐसी भी क्या मज़बूरी ऐसे समाज को ठुकराते रहिये ,
कहतें हैं किसको लड़कपन, क्या जवानी का मज़ा ,
हो कोई भी उम्र पर तबियत से दम लगाते रहिये |


नेताओं का क्या है, उनको मुह छिपाना चाहिए ,
राजनीती की अनल से दामन बचाना चाहिए ,
सच्चा सुख तो सादगी में है ,
हौंसला हो तो दिखावे का चिलमन जलाना चाहिए |

हर किसी से हो सके तो दिल मिलाना चाहिए ,
पथ कोई भी हो मगर एक हमसफ़र तो चाहिए ,
वैसे तो इनकार हर बार होता होगा ,
गर अरमां हो तो फिर , इकरार करना चाहिए |


                              -अखिल कुमार द्विवेदी










जरुरी सूचना !!!

प्रिय पाठकों आपको यह विस्वास दिलाना चाहूँगा की मुन्ना और विद्यालय और आज के गाँधी मेरे मौलिक लेखन के शुरुआती नमूने हैं कृपया इन्हें कट कापी पेस्ट ना समझें | जो भी किसी प्रकाशक की रचना यहाँ होगी उसका नाम जरूर बता दिया जायेगा, धन्यवाद |
                                     आपका अखिल कुमार द्विवेदी

मुन्ना और विद्यालय

बात प्रतापगढ़ की है, दरसल यह मेरे पूर्वजो की जन्मस्थली है, और यहाँ की प्रसिद्ध लोकोक्ति है " न सौ पढ़ा न एक प्रतापगढ़ा, और अगर ये पढ़ा तो भगवान् से भी जा बढ़ा" | हाल ही के दिनों में भारत सरकार की ओर से सर्व शिक्षा अभियान चलाया गया और इसके फल स्वरुप बड़ी संख्या में रिक्तियां भरने के लिए भावी I.A.S. ओं ने, कुकुर मुत्तों की तरह फैल रहे बी एड कलेजों में एड्मीसन ले लिया और कुछ माल पानी खिला के अच्छे अंकों के साथ शिक्षा की उपाधि भी हांसिल कर ली, कुछ मुलायम सिंह शाशन कृपा प्राप्त  विद्यार्थियों का भविष्य भी उज्जवल हो उठा, बाकि अपनी इमानदारी के लिए भाग्य को कोसते रहे, वैसे हमारा प्रयोजन तो उन सुशिक्षित भाग्यशाली सहायक अधपकों से है| ऐसे ही एक महाशय हैं मुन्ना लाल जी ( नाम परिवर्तित है ताकि सभी अधायपक अपने टैलेंट को कम न समझे ) |
                        मुन्ना लाल जी बचपन से ही नक़ल में अवल और पढाई में फिसड्डी रहे, इनके पिता जी पुलिस में सिपाही और माता जी आबकारी में चपरासी के पद पर कार्यरत हैं, पर सबसे बड़ी बात तो इनके चाचा जी भी एक सहायक अध्यापक हैं, अब तो आप समझ हे गए होंगे की मुन्ना लाल जी की पढाई की स्थिति  क्या रही होगी, मुन्ना लाल जी सोलह साल में विश्वविद्यालय से कला में उपाधि हांसिल कर चुके थे और अट्ठारवें साल में ही
राज्य सरकार के अध्यापक पर नियुक्त थे
                          कुंडा के शुकुलपुर गाँव के प्राथमिक विद्यालय में प्रोफेसर मुन्ना जी का बड़ा भौकाल था, उनका मनना था की भौकाल टइट तो फीउचर ब्रईट मतलब तो आप भी खूब समझते होंगे, बस अब क्या था और सोने पे सुहागा के लिए उसी विद्यालय में एक मैडम थी, इनके पिता जी सरकारी अफसर थे ये पेशे से तो गृहणी नजर आती थी पर दुर्भाग्य से अभी कुंवारी ही थी ( दुर्भाग्य इसलिए क्यूँ की इनके लायक कोई लड़का मतलब वेल सेटेलड़ नहीं मिल पाया था ), पर भौकाल इनका भी कम न था , ऐसे जगह शिक्षा कम और फेंकना ज्यादा सिखाया जाता था | 
                         अब मुद्दे पर चलते हैं भूमिका पूरी हुई, माननीय बहन जी के आदेश पर उस ब्लाक के अधिकारी को उसी विद्यालय के दौरे का कार्यक्रम मिला, जब शिक्षकों को पता चला तब उन्होंने आनन फानन  में कुछ पढाई शुरू करवाई, क्यों की शिक्षा विभाग के इस अनुभाग में ऊपर की कमाई तो होती नहीं, जो कुछ साल छे महीने में मिलता है पूरा परिवार उसी पे पलता है, ऐसे में जैसे गाय को बछिया प्यारी होती है, उसी तरह उन दोनों को अपनी नौकरी प्यारी थी | तब विचार किया की आज अंग्रेजी का जमाना है तो बच्चों को अंग्रेजी वर्णमाला सिखा दी जाय ताकि अफसर के सामने नाक न कटे  | मैडम ने बहुत कोशिस की A फॉर अप्पल याद कराया जाए पर गाँव के बच्चे अप्पल वाप्पल क्या जाने, जब सिर्फ पांच दिन अधिकारी को आने में बचे तो मुन्ना लाल जी ने अपनी जुगाड़ टेकनीक का इस्तेमाल शुरू किया और कमान खुद संभाली |अब उन्हों ने शुरू किया A फॉर अन्नू की बीवी , B फॉर बब्बू की बीवी, C फॉर चुन्नू की बीवी, और ऐसा करते करते किसी प्रकार आधी वर्णमाला हुई अब दो दिन शेष थे, तो मैडम के अनुसार रिविजन जरुरी था सो आधी वर्णमाल को ही पुनः याद कराया गया | 
                           अब घटना वाले दिन अधिकारी विद्यालय पहुंचे और मुआयना किया उन्होंने एक बोर्ड पर लिखा G और पूंछा तो बच्चों ने तपाक से जवाब दिया गुड्डू की बीवी, वह बहुत ख़ुस हुए और मुन्ना और मैडम के भी जान में जान आई पर भगवान् को कुछ और ही मंजूर था, अधिकारी ने पुनः लिखा W अब सभी बच्चे चुप थोड़े सन्नाटे के बाद बनकट खड़ा हुआ और हिम्मत करके हीच किचाते हुए बोला साहब ई तो हमरे मुन्नू की बीवी है पर आज तो ई उलटी खड़ी है
                        अधिकारी ने दोनों शिक्षकों को छः महीने की छुट्टी दे दी किन्तु जुगाड़ के चलते मैडम तो दो महीने में ही कक्षा में स्वेटर बुनते नज़र आने लगी और तीसरे महीने में मुन्ना लाल जी अपने मुन्नी के साथ (जिनको अपनी पहली संतान सुख का आनंद मिला ) ए तो खिसियाहट में मैडम से कहा, पारिवारिक विपदा आने की वजह से थोड़ी देर हो गयी अन्यथा मै तो दस दिन में ही अधिकारी को दो बोतल स्वर्ग रस ( माता  जी के विभाग से उपहार से ) के साथ नकद दक्षिणा ( पिता के विभाग का जन्म सिद्ध अधिकार ) पहुंचा पुनः नियुक्ति पत्र ले लिया थ, मिले भी क्यूँ न साहब वैसे भी अभी कौन सा अन्ना की मांग मानी ही गयी और जन लोक पाल बिल लागू ही हो गया |

Wednesday, August 17, 2011

आग जलनी चाहिए

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।

युगावतार गाँधी

चल पड़े जिधर भी पग दो  पग ,
चल पड़े कोटि पग उसी ओर |


पड़ गयी जिधर भी एक दृष्टि ,
गद गए कोटि द्रग उसी ओर |


जिसके सर पर निज धरा हाथ ,
उसके सर रक्षक कोटि हाथ |



जिस पर निज मस्तक झुका दिया ,
झुक गए उसी पर कोटि माथ |


तुम बोल उठे युग बोल उठा ,
तुम मौन बने युग मौन बना |


कुछ कर्म तुम्हारे सिंचित कर ,
युग कर्म जगा, युग धर्म तना |


धर्माडंबर के खंडहर पर ,
कर पद प्रहार कर धरा ध्वस्त |


मानवता का पवन मंदिर ,
निर्माण कर रहे सृजन व्यस्त |


बढ़ते ही जाते दिग्विजयी ,
गढ़ते तुम अपना राम राज |


अतामहुती के मणि मानिक से ,
मढ़ते जननी का स्वर्ग ताज |


पिसती कराहती जगती के ,
प्राणों में भरते अभय दान |


अधमरे देखते हैं तुमको ,
किसने आकर यह किया त्रान |


हैं शास्त्र अस्त्र  कुंठित लुंठित ,
सेनाएं करती गृह परायण |


रन भेरी तेरी बजती है ,
उड़ता है तेरा ध्वज निशान |


हे युग दृष्टा हे युग दृष्टा ,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष
मंत्र |

इस राजतंत्र के खंडहर में ,
उगता अभिनव भारत स्वतंत्र |








Tuesday, August 16, 2011

आज के गाँधी

बापू तुम तो नहीं रहे,
पर चेले चाँदी काट रहें हैं,


जितने पुण्य कमाए तुमने

आपस में सब बाँट रहें हैं,

सत्य अहिंसा परमोधर्म,
ये शाही गुलकंद हो गए,

बापू इनको शिष्य तुम्हारे,
शहद लगाकर चाट रहें हैं |

                             अखिल कुमार द्विवेदी

इंसान बनकर आ रहा सवेरा है

कल थे कुछ हमबन गए आज अनजाने हैं,
सब द्वारे बंद, टूटे सम्बन्ध पुराने हैं,
हम सोंच रहें हैं कैसा नया समाज बना,
जब अपने हे घर में हुए हम बिराने हैं |

है आधी रात अर्ध जग पड़ा अँधेरे में,
सुख की दुनिया सोती रंगों के घेरे में,
पर दुःख का इंसानी दीपक जलकर कहता,
अब ज्यादा देर नही है नए सवेरे में |

हम जीवन की मिट्टी में मिले सितारे हैं,
हम रख नहीं हैं रख ढके अंगारे हैं,
जो अग्नि छुपा राखी हैं हमने यत्नों से,
हर बार धरा पे उसने प्रलय उतारे हैं |

है दीप एक पर मोल सूर्य से भी भारी,
है व्यक्ति एक वर्तिका, डेप धरती साडी,
देखो न दुखी हो व्यक्ति, उठे इंसानी लौ,
वन खंड जलती सिर्फ़ एक ही चिंगारी |

है झंझापथ ,पद आहत , दीपक मद्धिम है,
संघर्ष रात काली, मंजिल पर रिमझिम है,
लेकिन पुकारता आ पहुंचा युग इंसानी,
दो कदम रह गया स्वर्ग चढ़ाई अंतिम है |

दीपक तेरे नीचे घिर रहा अन्दर है,
सोने की चमक टेल अनीति का डेरा है,
तू इंसानी जीवन की रात मिटा वरना,
इंसान स्वयं बनकर आ रहा सवेरा है |


पंचवटि में लक्ष्मण